राष्ट्र है वह पीड़ा जिससे
रोना नहीं सीखतीं हमारी आँखें
धुएँ के नीचे महामंडित, रूपवान
नदी तट पर जलसमाधि लेने को मज़बूर
लहरें- समुद्र के पके केश
लहराते रहते हैं अपने तर्क पर
जब बाहरी दुनिया यानी सभा
छोड़ देती अपनी पतंग, ढोल पीट
बहरी दूरियों में...।
इस बीच आम लोग हिलाते रहे
देश का राष्ट्रीय झंडा
भक्ति-भाव से शहीदों को याद कर।
और देवताओं के चेहरे पर फिसलती रहती हैं
हमारी प्रार्थनाएँ...