वह प्रेत है, उस में तर्क करने की शक्ति नहीं है। जिस भावना को ले कर वह इस रूप में आया है, उसे अब दूर करने में वह असमर्थ है।
किन्तु जितनी अच्छी तरह वह इस पूर्व-भावना की सहायता से अपने को समझ सकता है, उस से कहीं अधिक अच्छी तरह उस की एक अप्रकट संज्ञा समझती है...
तुम उसे कितनी प्रिय थीं- फिर क्यों उस के इच्छा काल में नहीं आयीं?
अब चली जाओ। समय पर तुम्हारे न आने से जितना कष्ट हुआ था, उस से कहीं अधिक तुम्हारे अब आने से हो रहा है। यदि इस के आघात की इयत्ता को वह नहीं जानता, तो केवल इसीलिए कि वह प्रेत है।
वह अब आकृष्ट नहीं होता- यद्यपि उस में विरक्ति भी नहीं है, ग्लानि भी नहीं। उस में है केवल अपने पूर्व रूप की एक भावना- कि तुम अप्राप्य हो, इच्छा करने पर भी नहीं मिलोगी, कि उस का सारा आकाश भर कर भी तुम सहसा चली जाओगी। इस से अपनी रक्षा के लिए ही वह कवच धारण किये खड़ा है।
वह जो संसार की विभूति को पाकर भी सिकता-कण से ध्यान नहीं हटा पाता, उस का यही कारण है।
दिल्ली जेल, 9 जुलाई, 1932