वह बूढ़ा नीम
घर के आगे
पी0डब्ल्यू0डी0 की ज़मीन में खड़ा
कृषकाय, जीर्णबाहु, अनघ
तूफानों में कराह उठता
हिल जाता एक-एक अस्थिपंजर तदंनतर
हर व्याघात में
छोड़ जाता साथ
कोई-न-कोई अपना
पंछी खोदते, खरोंचते रहते
उसके घावों को
पर वह निष्कल्मष, निस्सहाय
निःस्पृह, परकाजी
किससे कहे
अपनी हलकई, अपनी फोंकी
जो भी निचोड़ पाता
माँ के सूखे वक्ष से
उसी से जुटाता
औरों के लिये
जीने के उपस्कर, उपादान
किसी का दुतवन,
किसी का काढ़ा
गाय, बकरी से लेकर
भूत तक भगाने का सोंटा
सभी का हक़ था उस पर
कभी वन-विभाग वाले भी
नंबर ठोक गये थे
दो बित्ता चमड़ा छीलकर
पर रात की भयंकर आँधी
थम न पाया बेचारा
सवेरे पड़ी थी उसकी लाश
मेन रोड पर ही
और भैया बोल रहे थे
यह बूढ़ा है बड़ा साल-वाला
इसी से बनवाऊँगा
बहिन के द्विरागमन का संदूक
निबोरियों की बुकनी
बाक़ी का जलावन
कुछ भी नहीं जायेगा बेकार