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वह सोचती है / इला कुमार

एक स्त्री कुछ खोजती हुई-सी आती है
कंधे पर झोला लटकाए हुए
खोज के पीछे-पीछे उसकी आकांक्षाएँ
ईर्ष्या, द्वेष, तीक्ष्ण दृष्टि
सभी कुछ चले आते है

अ-आकारित, पंरतु पूर्ण सजग
असतर्क, नर्म, बेपरवाह सतहों में आग लगाने को तत्पर

वह अपने व्यक्तित्व के समस्त आयामों के साथ
कुछ समय व्यतीत करती है
अर्धपरिचित परिचिता के संग
वह बिताती है कुछ समय

बीतता हुआ वक़्त ढलती धूप के संग मिलकर
किसी एक अनजाने खेल को रच डालता है

कौतुकवश

धूप अपनी अदृश्य रश्मियों के जादुई ज़ोर से
स्त्री के पीछे चलते समस्त दुर्गन्धित
भावनाओं का हरण कर लेती है

सोख लेती है वह ईर्ष्या, द्वेष, तीक्ष्ण दृष्टि
सभी कुछ
चुपचाप

स्त्री के व्यक्तित्व के संग एक स्वच्छ पारदर्शिता बिलम जाती है
नई-नई परिचित दो स्त्रियाँ
आपस में बोलती-बतियातीं हैं
हँसती-खिलखिलातीं हैं
मायूस भी होती हैं कई मुद्दों पर
घर और समाज में उपस्थित कँटीले दबावों को याद करके

मुलाक़ात का वक़्त बीत चुका है
वापस लौटती हुई स्त्री का झोला खाली-खाली सा है

मन भरा-भरा हुआ

उसे नहीं पता है
उसके तमाम अवगुण
उस श्वेत गोल टेबल की सतह तक
उसके संग चलकर गए थे

जहाँ रक्खे गए थे तरल पेय भरे गिलास
और
शुभ्र-धवल बटर-मिल्क भी

उसके तत्काल बाद ही गवाक्ष से पैठती हुई
सूर्य रश्मियों ने कौतुक रचा था
तमोगुणी तत्वों को सोख डालने का कौतुक

वापसी के रास्ते
कुछ ढूँढ़ती-टटोलती सी जाती हुई वह स्त्री
बार-बार डगमगाते विचारों में निमग्न होती है
वह सोचती है...