एह आकाश में
किरण मुकुट से सजल
सुरूज देवता के
हमहीं सिरजले बानी।
इ समुंदर आ अंतरिक्ष
हमार घर बा।
चेतना रूप में हम
इ त्रिलोकी में
बेआपत रहींला॥7॥
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥7॥