पहले कहीं किसी बस्ती में
एक खून पर भी मच जाता था तहलका,
खून खौल उठता था सबका,
मगर अब सामूहिक हत्याकांड भी
तहलका तो क्या सनसनी भी पैदा नहीं करता
बीस-तीस लोगों के मरने से पहले मानों कोई नहीं मरता।
हर हत्या के बाद
चीखता है सायरन/ दौड़ती है पुलिस,
मगर न कहीं कोई डर से पीला पड़ता है,
न कहीं इंसानियत रोती है,
क्योंकि अब आदमी की जान नहीं,
मुआवजे की राशि सुर्खियों में होती है।
लोग खून की कीमत रुपयों से तो जोड़ देते हैं
मगर कोई नहीं देखता वो आँसू जो
बूढ़ी माँ की बूढ़ी, झुर्रीदार आँखों के समंदर में
किनारे पर आने से पहले दम तोड़ देते हैं।
कोई नहीं देखता
चूड़ियों के साथ जिंदगी की खनखनाहट का किर्च किर्च होना
और वासन्ती युवा मुस्कानों का
इतिहास होने की विवशता ढोना।
और सफेद साड़ी में लिपटकर काली स्याह रातों में रोना।
अब तो बस दो मिनट के मौन
और चंद शब्दों की श्रद्धांजलि में,
मांग में सिंदूर और होठों पर
मुस्कानों के महल उगा लिए जाते हैं
और जहाँ वारदात होती है,
वहाँ लाशों की सुरक्षा में
कुछ और सुरक्षाकर्मी लगा दिए जाते हैं।
इस महकमे की भी अजीब आबरु होती है
पुलिस की ड्यूटी
वारदात के बाद शुरु होती है।
सुनते हैं कि प्रशासनिक मजबूरी है
किसी कार्रवाई से पहले वारदात होना जरूरी है
और जब कोई वारदात हो जाती है
तो पुलिस केवल मुर्द ढोने आती है।
मरने वालों में जब तक अपना कोई नहीं होता
हममें से भी कोई नहीं रोता।
रोज-रोज की हत्याओं की ये खबरें
जब चाय पीते हुए लोग सुबह के नाश्ते के साथ निगल जाते हैं
तब पता चलता है कि कब कैसे और कहाँ
लोग संवेदनाशून्य जानवरों में बदल जाते हैं।
सभी के लिए तो यहाँ लटके हैं पिंजड़े
यहाँ आदमी कौन परिंदा कौन है
ये बात मैं आज तक नहीं समझ सका
इन मुर्दा बस्तियों में आखिर जिंदा कौन है।