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वाराहा / अमरेन्द्र

लोकगीत के मुर्गा-मुर्गी, साँढ़-बैल हैं छुट्टा
काली के पिण्डे से लेकर सरस्वती-घर घूमे
बेलज बने जोगीरा को अब गले लगा कर चूमे
कल तक आँख बचानेवाला हिला रहा है पुट्ठा ।

भूल गया संगीत देश को, शंकर और झिंझोटी
भैरव, सारठ, गौरी, पूरिया, काफी, पीलू, टोड़ी
नाच रहा है पाॅप द्वार पर बाहर कर के ढोड़ी
जोगिया, भीमपलासी की ही जाकर खींचे चोटी ।

पहले सर हिलता था सुर से, कमर-टाँग अब हिलती
पहले सुर था मलय पवन-सा, अब आँधी का उठना
बैठे-बैठे मालकोश का टूट गया है टखना
एकताली अब भ्रमणताल से कभी नहीं है मिलती ।

कर्णखोर संगीत-शोर यह नवयुग का नक्शा है
गेहुँअन, नाग, दुमुँही से ही भरा हुआ बक्सा है ।