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वासन्ती दोहे / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु

वसन्त द्वारे है खडा़, मधुर मधुर मुस्कान ।

साँसों में सौरभ घुला, जग भर से अनजान ।।1


चिहुँक रही सुनसान में, सुधियों की हर डाल ।

भूल न पाया आज तक, अधर छुअन वह भाल ।।2


जगा चाँद है देर तक, आज नदी के कूल ।

लगता फिर से गड़ गया उर में तीखा शूल ।।3


मौसम बना बहेलिया, जीना- मरना खेल ।।

घायल पाखी हो गए, ऐसी लगी गुलेल ।।4


अँजुरी खाली रह गई, बिखर गये सब फूल ।

उनके बिन मधुमास में, उपवन लगते शूल।।5