वसन्त द्वारे है खडा़, मधुर मधुर मुस्कान ।
साँसों में सौरभ घुला, जग भर से अनजान ।।1
चिहुँक रही सुनसान में, सुधियों की हर डाल ।
भूल न पाया आज तक, अधर छुअन वह भाल ।।2
जगा चाँद है देर तक, आज नदी के कूल ।
लगता फिर से गड़ गया उर में तीखा शूल ।।3
मौसम बना बहेलिया, जीना- मरना खेल ।।
घायल पाखी हो गए, ऐसी लगी गुलेल ।।4
अँजुरी खाली रह गई, बिखर गये सब फूल ।
उनके बिन मधुमास में, उपवन लगते शूल।।5