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विकल्प की तलाश / उमेश चौहान

वह आई
हथेलियाँ पसारे
गड़ा दी आँखें उसने
कार के डार्क शीशे पर
याचना में होंठ काँपे
‘पेट भूखा है, सर !’

एक मन किया
दे दूँ दो-चार रूपए
हाथ ख़ुद ब ख़ुद सरक गया जेब की तरफ़
तभी दूसरा विवेक जागा,
मत दो कुछ भी
नही तो भीख माँगते ही गुज़ारेगी सारी ज़िन्दगी ।

मन किया पूछ लूँ
‘कुछ काम क्यों नहीं करती ?
चलेगी मेरे साथ ?’
पर मुँह से न निकल सकी यह बात
क्योंकि डर था कि
उसमें छिपी हो सकती है
किन्हीं अनर्थों की सौगात !
अचानक ग्रीन-सिगनल होते ही
छिटक गई वह फुटपाथ की तरफ़
उसके पास विकल्पों की तलाश का
इतना ही समय था

चौराहे पर लाल सिगनल के ग्रीन होने तक
मेरे पास भी उसके लिए सोचने का
इतना ही समय था शायद,
उसके सामने कोई विकल्प रखने से पहले ही
रोज़ वहाँ से बढ़ जाता था मैं आगे ।

घर की बेटी की तरह
बड़ी हो रही थी वह भी सड़क पर
बढ़ रही थीं उसकी ज़रूरतें भी
पर सिकुड़ते जा रहे थे दिन-ब-दिन उसके विकल्प

उसके आस-पास ही देख रखे थे मैंने
उसकी माँ व दादी की भी उम्र के चेहरे
भिक्षाटत ही उनके पास एकमात्र विकल्प था
क्योंकि इस देश के पास उनके लिए
कोई अन्य विकल्प तलाशने की फ़ुरसत ही न थी ।