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विकास का बुलडोज़र / बसंत त्रिपाठी

बस्ती उजाड़ने के बाद बुलडोज़र
सरकारी परिसर में थका हुआ-सा पस्त
चुपचाप खड़ा है
उसके डैने में कुछ चिथड़े फँसे हैं

ध्वस्त बस्ती के मलबे में
बीनने बटोरने की थकी हुई हरकतें
आँसुओं के बीच दीख रही हैं
जैसे निर्माण के महास्वप्न में
अस्वीकार कर दी गई मनुष्यता !

आख़िर कौन हो सकता है ऐसे दृश्यों पर मुग्ध ?
दिमाग में इतनी क्रूरता
दिल में इतनी नफ़रत कहाँ से आ पाती है ?

वैध और अवैध की परिभाषाएँ
इतनी अमानवीय कब हो गईं ?

प्रतीकों के कैसे कुचक्र में फँस गया है हमारा समय ?

गाय-बछड़ा, हाथ, बन्द मुट्ठी, हँसिया-हथोड़ा, गेहूँ की बालियाँ कमल, साइकिल और झाड़ू से ख़ुराक पाकर पुष्ट हुई
चमकदार सुविधाजीवी नागरिकता
बुलडोज़र पर लहालोट है

यह प्रतीकों के विपर्यय का समय है
ईश्वरों के चेहरे बदले जा रहे हैं
इतिहास को भूल-सुधार की तंग गलियों में ठेल दिया गया है
ट्रैक्टर की घरघराहट पर बुलडोज़र के जबड़े हावी हैं
चुनावी जीत के नशे में चूर सरकार ने
विकास को बुलडोज़र का समानार्थी शब्द घोषित कर दिया है

क्रूरताओं पर मुग्ध लोगों !
देख सकते हो तो देखो
सत्ताएँ कोमलता से पिण्ड छुड़ाना चाह रही हैं
तुम्हारे भीतर भी कोमलता के जो अवशेष हैं
उसके लिए भी ख़रीद लिया गया है
एक मज़बूत बुलडोज़र ।