विक्रम के
सिंहासन पर
है प्रश्नों का बेताल,
टूटे पहिये
वाले रथ का
चलना हुआ मुहाल।।
सभासदों के
अपनेपन में
निष्ठुर स्वार्थ झलकता,
चौखट के
समीप में कोई
अग्निबीज है उगता।
परिचपत्रों
पर फोटो के
ऊपर फोटो रखकर,
जनता की
आँखों से कॉपी
मंत्री रहा निकाल।।
कानों में
जबरन घुस आतीं
फ़ब्ती गन्दी बातें,
गली नुक्कड़ों
चौराहों पर
सहम रही हैं रातें,
मांस नोचते
लाशों के
व्यापारी सुबहो शाम
समय धार्मिक
चिन्तनवाला
कीचड़ रहा उछाल।।
जीत-हार के
पाटों में हम
घुन जैसे पिसते हैं,
भींच मुट्ठियाँ,
कान छेदतीं
दुत्कारें सहते हैं।
मछली अच्छी
मगरमच्छ या
बगुला भगत समर्पण,
इस चिंतन में
कई दिनों से
विक्रम हैं बेहाल।।