यह कितना अजीब है!
आज़ादी के
तीन-तीन दशक
बीत जाने के बाद भी
पाँच-पाँच पंचवर्षीय योजनाओं के
रीत जाने के बाद भी
मेरे देश का
आम आदमी ग़रीब है!
बेहद ग़रीब है!
यह कितना अजीब है!
सर्वत्र
धन का, पद का, पशु का
साम्राज्य है,
यह कैसा स्वराज्य है?
धन, पद, पशु
भारत-भाग्य-विधाता हैं,
चारों दिशाओं में
उन्हीं का जय-जयकार,
उन्हीं का अहंकार
व्याप्त है,
परिव्याप्त है,
और सब-कुछ समाप्त है!
शासन
अंधा है, बहरा है,
जन-जन का संकट गहरा है!
(खोटा नसीब है!)
लगता है —
परिवर्तन दूर नहीं,
क़रीब है!
किन्तु आज
यह सब
कितना अजीब है!