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विज्ञापन / दिनेश्वर प्रसाद

मैं प्रतीक नहीं, पदार्थ चाहता हूँ ।
मैं गणेश नहीं, ग्रन्थ; सरस्वती नहीं, शब्द;
नन्दन नहीं, पार्क; स्वर्ग नहीं, मिट्टी का घर चाहता हूँ ।
दाढ़ीबाबा की गणना का मँगल नहीं,
नियुक्तिपत्र चाहता हूँ ।

मैं ईश्वर नहीं, मनुष्य चाहता हूँ ।
ईश्वर की आँख इतनी छोटी
कि अणुवीक्षक नहीं देखे ।
ईश्वर की कृपा इतनी दूर
कि नक्षत्रभेदी विमान भी नहीं पाए।
ईश्वर का न्याय इतना मोटा
कि दसमनी तोन्द भी लजा जाए।
मैं स्वयं मूल्यों के प्रलय से
धरती को बचा लूँगा ।

मैं शवसाधना करने नहीं, जीने आया हूँ ।
शिलालेख पढ़ने नहीं, लिखने ।
मुझे वर्तमान के कारख़ाने में
अपने क्षणों को गलाने दो,
अपने भविष्य के प्रकाशवेधी यान
बनाने दो !

क्या मेरा जीवन नाटक नहीं हो सकता
जिसका मैं बार-बार अभिनय करूँ ?
कम-से-कम एक बार और
एक बार और ?
मैं स्वगतोक्तियाँ नहीं कहता ।
कुछ दृश्यों को हटाकर मैं
कुछ दृश्यों को बढ़ा देता !

(25 दिसम्बर 1964)