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विदाई का टीका / नरेश अग्रवाल

कितना अच्छा लगता है
कोई स्नेह भरा हाथ टीका लगाकर
हमें यात्रा के लिए विदा करे।
अक्सर मॉं ही यह काम करती है
और मैं पूरी समग्रता से
उनके पांव छूकर निकल पड़ता हूं।
वह जाते-जाते मुझे देखती है
फिर टीके के आकार को
कि कितना जंच रहा है मुझ पर
हालांकि अधिक देर तक यह नहीं रहता था।
थोड़ी देर बाद हाथ-मुंह पोंछते मिट जाता था।
अक्सर मेरे सफर लम्बे नहीं होते थे
जल्दी ही वापस लौट आता था
और सबसे पहले मां से ही मिलता था
हाथ में कुछ न कुछ उसे सौंपते हुए।
वे इन सारी चीजों को दूसरे सदस्यों में बांट देती थी
मैं सोचता हूं मां की विदाई सबसे मूल्यवान थी
इसमें मेरी सारी सुख सुविधाएं
और लौटने का इंतजार रहता था
जबकि वह सचमुच में मुझे, कभी विदा नहीं करती थी
इस टीके में उसकी दुआएं छिपी होती थी।