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विदा / नामवर सिंह

दौड़ रही ’तूफ़ान’ चीख़ती झक झक झक झक
गहन तिमिर में, देख रहा खिड़की के बाहर
पार्श्वनाथ की पहाड़ियों पर लक लक लक लक
झलक रही, उठती दबाग कुछ कुछ अन्तर पर

निशि गहराकर और दृष्टि में भर दुहरापन
तुरत तुरत बीती सन्ध्या आ गई लौटकर;
आई ट्रेन, साथ डग भरते बढ़ना तत्क्षण;
साथ बैठना, बोध सहपथिक का जैसे भर;

सहसा कहना, ’विदा’, रुमालों का फिर हिलना
पकड़ - पकड़ छूटते ’न कुछ’ को दृग का थकना
’कहाँ जाएँगे?’ ’क्या करते ?’ प्रश्नों से मिलना
भीतर कभी, कभी बाहर का शून्य निरखना ।

पार्श्वनाथ गिरि पर दबाग लक लक लक लक
दौड़ रही तूफ़ान हृदय - सी धक धक धक धक ।