याचक प्रेम की अवस्था विशेष है
किसी ने उसे जोगी कहा
किसी ने भिक्षु
और किसी ने इस अवस्था विशेष को
वैराग्य की पूर्वावस्था कहा।
वैचारिकी , विमर्श और मेधा
इसे आत्मसम्मान के आहत का कारक बताती है।
पर नेह मान के परे और मन के समीप होता है
वहाँ न मान, न सम्मान न आत्मसम्मान
दो होकर भी बस एक मन!
हालाँकि दर्शन इसी मन की अलग व्याख्या करता है।
कोई कहता है कि साथ रहना सदा, रहोगे न?
और कोई उन्हीं प्रश्नों को अनसुना कर देता है।
किसी छद्म वीतरागी की तरह
लौट जाता है कोई (प्रथम) अपनी दुनिया में
कोई (द्वितीय) घनीभूत कुहासे में अकेला छूट जाता है
डार से बिछड़े पात की तरह।
प्रथमा द्वितीया काश कि केवल विभक्तियाँ ही हुआ करतीं!
उपेक्षा और अपेक्षा का खेला भर है जीवन
अनुपस्थितियाँ ही पुरज़ोर उपस्थित होती हैं !
वे ही पुरअसर होती हैं!
सच है! वे ही अमर होती हैं
पुरंजर सम।