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विधवा / शेखर सिंह मंगलम

एक विधवा उतनी उदास होती है
जितनी की एक कटे हाथ की आस्तीन,
अब सफ़ेद साड़ी पहनना ज़रूरी नहीं किंतु
ज़रूरी है इसके बाद..
न करना हरेक वो चीज जो
एक सधवा करती है,

आवाजें ग़ीबतों की मद्धम हो गईं हैं किन्तु
उनके व्यंग की गोली
उतना घाव नहीं देती जितना कि
फुसफुसाहट का तेजाब उसके खाली मांग में
खुरद-खुरद घाव देता है,

मैंने विधवा के मुँह में
अवसाद का हलक देखा है
सूनी कलाईयों में
जले हुए जंगल के अधजले मेमने का चित्र,

मैंने देखा है विधवा की देह पर
ज़माने की लटकी हईं आँखें जो
खोजती हैं बटन-या कोई रास्ता
जिससे हो कर
हरण कर लिया जाय उसका समूल,

मैं अब ये कहूँ कि
उसके देह पर लटकी हुई आँखें
नीचता के कीचड़ में सनी थीं-या
कहूँ कि आँखों में
अश्लीलता की बिलनी हुई थी
तो क्या आप सहमती दोगे?

बिल्कुल, मुझे पता है
सहमती देने में कोई हर्ज़ नहीं
हर्ज़ है-
विधवा का हरेक वो चिन्ह न बदलने में
जिससे वो सुहागन कही जाती है।