कर चुका था जब विधाता प्यार के हित सौध स्थापित
विरह की विद्युन्मयी प्रतिमा वहाँ कर दी प्रतिष्ठित!
बुद्धि से तो क्षुद्र मानव भी चलाता काम अपने-
वामता से हीन विधि की शक्ति क्या होती प्रमाणित!
भर दिया रस प्रथम उस में कर दिया फिर प्यार वर्जित-
तब बने अन्धे पतंगे हो चुका जब दीप निर्मित!
पत्थरों के बुत हुए निष्प्राण स्थापित मन्दिरों में,
और उस के पूजने को हाथ मृदु, अनुराग-रंजित!
मोह में आदिम पुरुष ने ज्ञान का फल तोड़ खाया-
इसलिए उस ने प्रिया-सह चिरन्तन निर्वास पाया;
कौन पूछे, उन अभागों को किया पथ-भ्रष्ट जिस ने-
शत्रु जग के उस चिरन्तन साँप को किस ने बनाया?
खेलती विधि मानवों से? काश, हम भी खेल सकते!
भाग्य के हमले अनोखे हम हँसी में झेल सकते।
वह हमें शतरंज के प्यादों सरीखा है हटाता-
काश, हम में शक्ति होती भाग्य को हम ठेल सकते!
तर्क का सामथ्र्य हम में है, इसी से भूल जाते-
जानना हैं चाहते हम पूछते हैं छटपटाते।
बुद्धि ही इस मोह-जग में ज्योति अन्तिम है हमारी-
किन्तु क्या उस की परिधि में नियति को हम बाँध पाते!
लाहौर, अगस्त, 1936