विज्ञान ज्ञान बहु सुलभ, सुलभ बहु नीति धर्म,
संकल्प कर सकें जन, इच्छा अनुरूप कर्म।
उपचेतन मन पर विजय पा सके चेतन मन,
मानव को दो यह शक्ति: पूर्ण जग के कारण!
मनुजों की लघु चेतना मिटे, लघु अहंकार,
नव युग के गुण से विगत गुणों का अंधकार।
हो शांत जाति विद्वेष, वर्ग गत रक्त समर,
हों शांत युगों के प्रेत, मुक्त मानव अंतर।
संस्कृत हों सब जन, स्नेही हों, सहृदय, सुंदर,
संयुक्त कर्म पर हो संयुक्त विश्व निर्भर।
राष्ट्रों से राष्ट्र मिलें, देशों से देश आज,
मानव से मानव,--हो जीवन निर्माण काज।
हो धरणि जनों की, जगत स्वर्ग,--जीवन का घर,
नव मानव को दो, प्रभु! भव मानवता का वर!
रचनाकाल: फ़रवरी’ ४०