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विनय 5 / शब्द प्रकाश / धरनीदास

पतित-उधारन है वान भगवान तेरो, मेरो गुन अवगुन जो नक न विचारि हौ।
जो दयाल देव दीन जानि दया करो तो मैं, धर्मराज चारवीस चोर ते उवारिहौ॥
करनी गुनो न मोरी धरनी कहै पुकारि, शरनी लई जो गुरु सो जनी विसारि हौ।
तारे हो अनेक अपराधी अकलंकी देव, तौ मैं तोहिँ जो माँसे मूढ़ तारिहौ॥36॥