एक हवा का ठंडा झोंका खिड़की खोल चला जाता है ।
आता है विचार मन में : हे ईश्वर मेरे ।
या तो बरसाओ बहुतेरे ठंडे, नम, बरफ़ीले बादल,
जम जाएँ हम या जाएँ गल; और नहीं तो
यह कर दो : जो कोहरा धरती पर छाया है—
(क्या जानूँ किसकी माया है ।)—बन जाए वह
मोटी-सी तह गरम भाप की,
लहराती-सी उठे साँप की तरह
जान यह पड़े कि धरती एक केतली है,
उसके नीचे जो आग जली है—उसने सारे
मीठे-खारे सोतों, कुओं, सागरों का पानी खौलाया
और बताया : अगर चाय की पत्ती होती
तो जितनी भी दुनिया रोती-धोती है जाड़े के मारे
गरम चाय पीकर सो जाती पाँव पसारे, और…
दूसरा झोंका आकर हाड़-माँस सुलगा जाता है ।