राग गौरी, तीन ताल 24.7.1974
विपिन सों आवत हैं वनमाली।
गोधूली विरियाँ आवन की, चलहु-चलहु निरखहिं छबि आली!
चढ़ि-चढ़ि अटा विलोकहिं ग्वालिनि मोहन की वह छटा निराली।
देखो री! देखो, वह आवत नन्द-सुवन अति सोभा-साली॥1॥
कारी लट गोधूरि-धूसरित, वदन-चन्द्र बिथुरी घुँघराली।
‘हीओ-हीओ’ करत सखन सँग, चलत चाल सखि अति मतवाली॥2॥
हँसत हँसावत बात बनावत, हाथ लकुट तनु कामरि काली।
बेनु बजाय-बजाय बुलावत मनहुँ हमहिं मिलिवेकों आली॥3॥
बाँको भेस बन्यौ बाँके को बाँकी छबि अरु नजर निराली।
बाँकी प्रीति होत बाँको लखि, बाँके की बाँकी सब चाली॥4॥
हिय की हिलग कहहिं का सजनी! बिनु बाँके लागत दिन खाली।
वाही की चरचा करि काटहिं तकहिं साँझ को बाट उताली॥5॥
भूरि भाग इन गैयन को सखि! बालक हूँ अति सुकृती आली!
हम हूँ पुन्य-पुंज सों पाई नयनन की यह निधी निराली॥6॥