विरह की आग
नहीं बुझती
किसी जल से ।
भीतर के जल से
जलती-जलाती है....
ऐसे राख हुआ जाता हूं मैं
मत छूना मुझे!
छूने पर
टूट जाएगा भ्रम
अब मैं मैं नहीं हूं
है स्मृति मेरी....
मैं भीतर ही भीतर
ढेर हो चुका हूं.....
विरह की आग
नहीं बुझती
किसी जल से ।
भीतर के जल से
जलती-जलाती है....
ऐसे राख हुआ जाता हूं मैं
मत छूना मुझे!
छूने पर
टूट जाएगा भ्रम
अब मैं मैं नहीं हूं
है स्मृति मेरी....
मैं भीतर ही भीतर
ढेर हो चुका हूं.....