Last modified on 29 नवम्बर 2013, at 00:02

विरह के रंग (2) / अश्वनी शर्मा

हरजाई, आवारा मानसून
किन गलियों में डोलता है
ताकती रहती है रेत
मनचले के रंग-ढंग

दुहाग दी गयी रानी-सी रेत
वियोग की आग में तपती है
खुश हो लेती है चार बूंदे पाकर
सहेज लेती है
दो बूंद प्यार
कंगाल के धन-सा

आकंठ आसक्ता रेत
कभी-कभी फुसफुसा देती है कान में
सिर्फ एक दिन तो दो कभी
मुझे भी।