जब प्रकृति उघारी मत्त मिथुनकर महाकाय
सन्तति जाये, तो सद्य विराटा का सुपास
मिल जाय काश-हिय की हुलास-यूँ मज़ा आय
ज्यों गदबद पूसी को रानी के चरण ख़ास;
हुमसे मत्त मतांगा की फिर चढ़ी जवानी,
अंग मसोसें कुछ ऐसे कि बस पसर जाय,
यूँ लगे कि उसके हिये आग सुलगी तूफ़ानी-
छिपी, धुआँ जिसका कोयों में तरच्छाय;
बड़े मज़े से उसका महाकार सहलाता,
घिसट चोटियों से उसके घुटनों चढ़ जाता;
फिर गरमी में जब सूरज किरणों की मारी
निपट निढाल पड़ी मैदानों- छाया में पड़
मैं भीम उरोजों के खर्राटे भरता भारी
शिखर तली में मानो कोई फितनी झोपड़ !
अंग्रेज़ी से अनुवाद : रामबहादुर सिंह 'मुक्त'