Last modified on 20 मई 2019, at 12:23

विलाप करती औरतें / निकिता नैथानी

कल शाम को एकाएक
सुनाई देता है मुझे
तलवारों, भालों, गोलियों
से छलनी, ख़ून से लथपथ
अपने मर्दों को पकड़कर
चीख़ती-चिल्लाती औरतों का स्वर

मुझे लगता है जैसे
अभी-अभी ख़त्म हुआ हो
कुरुक्षेत्र के मैदान में
महाभारत का रण, जैसे अशोक
ने अभी-अभी जीता हो कलिंग,
जैसे, बस, अभी हुए हों
सभ्यताओं के तमाम युद्ध,
बाँटी गई हो सीमाएँ और
लाशों से पट गई हो धरती
और शत्रुता के विपरीत
कायम हो गई हो विलाप की एकरूपता

मगर इन युद्धों में
न पाण्डव मरे, न अशोक
न नेहरू मरे, न जिन्नाह

जो मरे वो
उन औरतों के मर्द थे
जिन्हें मर्दों के बिना
मरा हुआ बताया गया था
जिनके लिए अपने और अपने
बच्चों के लिए ज़िन्दगी ढूँढ़ना
हर पल, हर रोज़ युद्ध का मसला था

लेकिन इन औरतों ने
जली हुई धरती को
फिर से हरा किया

पर जब कल शाम
जब सदियाँ गुज़र गईं
महाभारत और कलिंग
के युद्ध को हुए
मुझे फिर से दिखाई दी
विलाप करती औरतें