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विवशता / अरुण देव



मैं देख सकता था
नहीं दिखी कुरूपता खुद की भी

मैं सुन सकता था
न कोई चीख, न पुकार न कहीं हाहाकार

मैं बोल सकता था
न कही कोई खरी बात कभी

मुझे उठाना था भरी भीड़ से
जहाँ झुक गये थे सबके कंधे
अपनी ही दिनचर्या के बोझ से
पर मैं कहाँ खड़ा हो पाया
वहां भी जहाँ इसकी सबसे जरूरत थी

इस तरह
अपने खिलाफ हो रहे भेदभाव के बीच भी
मैं अपनी आत्मा में धंसा
खुद को समझाता रहा कि
शायद मेरा ही दोष हो

यह मुझे क्या हो गया था

२१ वीं सदी के प्रारंभ में जैसे
अमरीका के सामने खड़े थे सब बेबस.