राज तिलक ही समय कैकही
दो वरदान मंगाई, कि दो वरदान
मंगाई हो राम।
राज तिलक भरत को भाये,
रामलखन वन को जाई।
मोरे राम चले बनवास रे डीओएस।
पुत्रे सोहग में राजा दशरत दिये प्राण।
गवाई देए प्राण गंवाई हो राम
भीतर रोवे माता कौसलिया
बहार भरत भाई, मोरे राम
चले वनवासे से डीओएस।
राम चले लक्ष्मण संग साथे
परजा भई भिखारी कि परमा,
भई भिखारी हो राम।
आ बरजन सो माने नहीं सीता
भये तैयारी मोरे राम।
चले बनवासे रे डीओएस।
चौदह बरस बिताये बंसा।
दुष्टों को संघाड़े कि,
दुष्टों को संघाड़े हो रा।
रामा दुष्टों को संघाड़े हो राम। आ दुनिया को सुख दिये
राम ने भूमि का भार उतारे मोरे राम।
चले बनवास रे दोस॥
शब्दार्थ – मंगाई-माँगे, पुत्रे सोहग=पुत्र के वियोग का शोक, परान=प्राण, गँवाईं=गँवाना, बरजन=रोकना, संघाड़े=संहारे, भूमि का भार= पृथ्वी पर फैले पाप का भार, उतार=उद्दार किये।
राज तिलक के दिन ही कैकयी ने राजा दशरथ से दो वरदान माँग लिये, राम को वनवास और भरत को राज तिलक। राम जब अयोध्या से वनवास के लिये सीता और लक्ष्मण के साथ निकले तो इधर पुत्र वियोग में राजा दशरथ ने अपने प्राण त्याग दिये। दोहरा दुख अचानक आ पड़ने के कारण राजमहल में माता कौशल्या रो रही हैं। भरत को मालूम पड़ा तो उनकी आँखों में अश्रुधारा बहने लगी। जब राम-लक्ष्मण और सीता महल से निकाल गये। सारी प्रजा भिखारी हो गई। सब लोग सीता को रो-रो कर रोक रहे हैं। फिर भी सीता बिना कुछ बोले राम के पीछे-पीछे वन को चली जा रही हैं। राम ने चौदह वर्ष वन में बिताये। वन में कई दुष्ट राक्षशों को संहार किया। लंका के रावण जैसे महा अहंकारी दुष्ट को मारा, इस तरह राम ने अपनी त्याग, तपस्या और वीरता से दुनिया को सुख दिया और इस धरती से दुष्टों को मारकर उसके भार को उतार दिया।