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15:20, 8 दिसम्बर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=चन्द्रकान्त देवताले
|संग्रह=लकड़बग्घा हँस रहा है / चन्द्रकान्त देवताले
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<poem>
मैं जो कह रहा हूँ
छिपी हुई हैं चीज़ें पर मैं
उन्हे देख सकता हूँ
मैं सुन सकता हूँ उसे भी
जो बन्द होंठों के भीतर ही कहा गया,
मेरे सामने मुसीबत का कोई
वैसा पहाड़ नहीं है
कि भूख से बिलबिलाते आदमी को
ले जाकर-
नाटक घर के दरवाजे पर छोड़ आऊँ,
या
खा-पीकर जाऊँ चैन से
और दिनभर की हड्डी तोड़ थकान के बाद
सोने जा रहे लोगों की नींद के दरवाजे पर
भय के भेड़िये छोड़ आऊँ,
मैं देखता हूँ चीजों को
धड़कनों के भीतर तक जाकर
और कहता हूँ कुछ इस तरह से
जैसे मैं जो कह रहा हूँ
वह देख सुन-कर ही नहीं
चख कर भी आया हूँ
और यह उससे कितना भिन्न है
जो सुबह अख़बार में
किसी की भी आँखें देखती हैं
अभी मैं सिर्फ़ इतना ही बताता हूँ
कि वह जो हँस रहा है
उसका हाथ जेब में रखे चाकू पर है,
वह जो अदृश्य हो गया है
दूर जंगलों में बन्दूक साफ़ कर रहा है
और वह जो प्रकट हो रहा है
आत्मीय मुस्कान के साथ
तुम ख़ुद सोच लो
कि वह कौन है ?
</poem>