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चीख़ें / अरुण कुमार नागपाल

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<poem>
एक सौ चीख़ो को
अपने अंदर दबाए रखने
और उनका गला घोंटते रहने से
कहीं अच्छा है
एक बार पूरी ताक़त से चीख़ लेना
ऐसी चीख़ मारना
जो दिल दहला दे सभी के
हिला कर रख दे सब जड़-चेतन को

रोज़-रोज़ चीखों को दबाने का अर्थ है
धीमी-धीमी
रूक-रूक कर की गई आत्महत्या
रोज़-रोज़ एक शराबी पति के हाथों पिटने
से कहीं अच्छा है
एक चीख़ मार देना
और उसे बता देना
कि चीख़ किसी संबंध का अंत हो सकती है
हमें चीख़े जमा करते रहने की
आदत सी क्यों हो जाती है
हम क्यों उठाए रह्ते हैं
अपनें दिमाग़ में
चीखों का बेइतहा बोझ
उसे फेंक क्यों नहीं देते
उस कचरा पेटी में
जिसके बाहर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख रहता है
कि ’कृप्या कूड़ा-कर्कट यहाँ फेंकें’

आओ हम एक चीख़ मारें
इसके दो फायदें होंगे
एक तो हम दोनों हल्के हो जायेंगे
दूसरा तुम्हें यह पता चल जायेगा
कि तुम बक़्त आने पर चीख़ भी सकते हो</poem>