<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png|middle]]</td>
<td rowspan=2> <font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td> '''शीर्षक : मैं अकेलामहबूब-ए-मुल्क की हवा बदल रही है<br> '''रचनाकार:''' [[सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"कुमार पवन]]</td>
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<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
मैं अकेला;देखता हूँ, आ महबूब-ए-मुल्क की हवा बदल रहीहै, मेरे दिवस ताजीरात-ए-हिंद की सान्ध्य बेला ।दफ़ा बदल रही है.
पके आधे बाल मेरेहुए निष्प्रभ गाल मेरेअस्मत लुटी अवाम की कहकहो के साथ,चाल मेरी मन्द होती आ और अफज़लो की सज़ा बदल रही, हट रहा मेला ।है.
जानता हूँबारूदी बू आ रही है नर्म हवाओ में, नदी-झरनेजो मुझे थे पार करने,कर चुका हूँ, हँस रहा यह देख, कोई नहीं भेला । कोयल की भी मीठी ज़बाँ बदल रही है.
शब्दार्थ: सुबह की हवाख़ोरी भी हुई मुश्किल,जलते हुए टायर से सबा बदल रही है. सियासत ने हर पाक को नापाक कर दिया,पंडित की पूजा मुल्ला की अजाँ बदल रही है. कहने को वह दिल हमी से लगाए है,मगर मुहब्बत की वज़ा बदल रही है. दुआ करो चमन की हिफ़ाजत के वास्ते,बागबानो की अब रजा बदल रही है। निगहबानी करना बच्चो की ऐ खुदा,भेला = पुराने ढंग दहशत में मेरे शहर की नावफ़ज़ा बदल रही है.
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