{{KKRachna
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ / अज्ञेय
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<poem>
जब आवे दिन
तब देह बुझे या टूटे
इन आँखों को
हँसती रहने देना!
जब आवे दिन <br>हाथों ने बहुत अनर्थ किये तब देह बुझे या टूटे <br>पग ठौर-कुठौर चले इन आँखों को <br>मन के हँसती रहने देना! <br><br>आगे भी खोटे लक्ष्य रहे वाणी ने (जाने अनजाने) सौ झूठ कहे
हाथों पर आँखों ने बहुत अनर्थ किये <br> पग ठौर-कुठौर चले <br>मन के हार, दुःख, अवसान, मृत्यु का <br>आगे अंधकार भी खोटे लक्ष्य रहे <br>देखा तो वाणी ने (जाने अनजाने) सौ झूठ कहे <br><br>सच-सच देखा
पर आँखों ने <br>हार, दुःख, अवसान, मृत्यु का <br>अंधकार भी देखा तो <br>सच-सच देखा <br><br> इस पार <br> उन्हें जब आवे दिन <br> ले जावे <br> पर उस पार <br> उन्हें <br> फिर भी आलोक कथा <br> सच्ची कहने देना <br> अपलक <br> हँसती रहने देना <br> जब आवे दिन! <br><br/poem>