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19:10, 14 दिसम्बर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
मैंने पूछा क्या कर रही हो
मैंने पूछा<br />
यह क्या बना रही हो?<br />
उसने आँखों से कहा<br />
धुंआ पोछते हुए कहा :<br />
मुझे क्या बनाना है! सब-कुछ<br />
अपने आप बनता है<br />
मैंने तो यही जाना है।<br />
कह लो भगवान ने मुझे यही दिया है।<br />
<br />
मेरी सहानुभूति में हठ था :<br />
मैंने कहा : कुछ तो बना रही हो<br />
या जाने दो, न सही – <br />
बना नहीं रही –<br />
क्या कर रही हो?<br />
वह बोली : देख तो रहे हो<br />
छीलती हूँ <br />
नमक छिड़कती हूँ<br />
मसलती हूँ <br />
निचोड़ती हूँ<br />
कोड़ती हूँ<br />
कसती हूँ<br />
फोड़ती हूँ<br />
फेंटती हूँ<br />
महीन बिनारती हूँ<br />
मसालों से सँवारती हूँ<br />
देगची में पलटती हूँ<br />
बना कुछ नहीं रही<br />
बनाता जो है – यह सही है –<br />
अपने – आप बनाता है<br />
पर जो कर रही हूँ –<br />
एक भारी पेंदे<br />
मगर छोटे मुंह की<br />
देगची में सब कुछ झोंक रही हूँ<br />
दबा कर अंटा रही हूँ<br />
सीझने दे रही हूँ।<br />
मैं कुछ करती भी नहीं<br />–
मैं काम सलटती हूँ।<br />
मैं जो परोसूंगी<br />
जिन के आगे परोसूंगी<br />
उन्हें क्या पता है<br />
कि मैंने अपने साथ क्या किया है?<br /> (मार्च 1980)