कविता का शेष अंश शीघ्र ही टंकित कर दिया जाएगा।सोचता हूँ, कौन शिल्पी किस तरह की छेनियाँ, कैसे हथौड़े लिए, कैसी विवशता से घिरे-प्रेरे यहाँ आए होंगे औ' रहे होंगे जुटे कितने दिनों तक- दिन लगन, श्रम स्वेद के, संघर्ष के शायद कभी संतोष के भी- काटते इन मूर्तियों को, नहीं- अपने आप को ही। देखने की वस्तु तो इनसे अधिक होंगे वही, पर वे मिले इस देश के इतिहास में, इसकी अटूट परंपरा में और इसकी मृत्तिका में जो कि तुम हो, जो कि मैं हूँ। लग रहा पाषाण की कोई शिला हूँ और मुझ पर छेनियाँ रख-रख अनवरत मारता कोई हथौड़ा और कट-कट गिर रहा हूँ... जानता मैं नहीं मुझको क्या बनाना चाहता है या बना पाया अभी तक। मैं कटे, बिखरे हुए पाषाण खंडों को उठाकर देखता हूँ- अरे यह तो 'हलाहल', 'सतरंगिनी' यह; देखता हूँ, वह 'निशा-संगीत',...'खेमे में चार खूँटी'; क्या अजीब त्रिभंगिमा इस भंगिमा में! 'आरती' उलटी, 'अँगारे ' दूर छिटके'; यह 'मधुबाला' बिलुंठित; धराशायी वहाँ 'मधुशाला' कि चट्टानी पड़ीं दो- आँख से कम सुझता अब- उस तफ़ 'मधुकलश' लुढ़के पड़े रीते; 'तुम बिन जिअत बहुत दिन बीते'।