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14:42, 21 दिसम्बर 2010 '''ऐ शरीफ इंसानों'''
खून आपना हो या पराया हो
,नसल-ऐ-आदम का खून है आख़िर,
जंग मशरिक में हो या मगरिब में ,
अमन-ऐ-आलम का खून है आख़िर !
बम घरों पर गिरे की सरहदपर ,
रूह-ऐ-तामीर जख्म खाती है !
खेत अपने जले की औरोंके ,
जस्ति फ़ाकोंसे तिलमिलाती है !
टैंक आगे बढे की पीछे हटे,
कोख धरतीकी बौझ होती है !
फतह का जश्न हो की हारका सोग,
जिंदगी मय्यतोंपे रोंती है !
जंग तो खुदही एक मसलआ है
जंग क्या मसलोंका हल देगी ?
आग और खून आज बख्शेगी
भूख और एहतयाज कल देगी !
इसलिए ऐ शरीफ इंसानों ,
जंग टलती है तो बेहतर है !
आप और हम सभी के आँगन में ,
शमा जलती रहे तो बेहतर है !