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'''ऐ शरीफ इंसानों'''



खून आपना हो या पराया हो

,नसल-ऐ-आदम का खून है आख़िर,

जंग मशरिक में हो या मगरिब में ,

अमन-ऐ-आलम का खून है आख़िर !



बम घरों पर गिरे की सरहदपर ,

रूह-ऐ-तामीर जख्म खाती है !

खेत अपने जले की औरोंके ,

जस्ति फ़ाकोंसे तिलमिलाती है !



टैंक आगे बढे की पीछे हटे,

कोख धरतीकी बौझ होती है !

फतह का जश्न हो की हारका सोग,

जिंदगी मय्यतोंपे रोंती है !



जंग तो खुदही एक मसलआ है

जंग क्या मसलोंका हल देगी ?

आग और खून आज बख्शेगी

भूख और एहतयाज कल देगी !



इसलिए ऐ शरीफ इंसानों ,

जंग टलती है तो बेहतर है !

आप और हम सभी के आँगन में ,

शमा जलती रहे तो बेहतर है !