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14:57, 27 दिसम्बर 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=आलम खुर्शीद
|संग्रह=
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<poem>
हर इक दीवार में अब दर बनाना चाहता हूँ
खुदा जाने मैं कैसा घर बनाना चाहता हूँ
ज़मीं पर एक मिटटी का मकां बनता नहीं है
मगर हर दिल में अपना घर बनाना चाहता हूँ
नज़र के सामने जो है, उसे सब देखते हैं
मैं पसमंज़र का हर मंज़र बनाना चाहता हूँ
धनक रंगों से भी बनती नहीं तस्वीर उसकी
मैं कैसे शख्स का पैकर बनाना चाहता हूँ
मेरे ख्वाबों में है दुनिया की जो तस्वीर 'आलम '
नहीं बनती मगर अक्सर बनाना चाहता हूँ
</poem>
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