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हथेली की लकीरों में इशारा और है कोई / आलम खुर्शीद
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03:18, 28 दिसम्बर 2010
हमारी राख में शायद शरारा और है कोई
अभी तक तो वही शिद्दत हवाओं के
जूनून
जुनूँ
में है
अभी तक झील में शायद शिकारा और है कोई
मैं बाहर के मनाज़िर से अलग हूँ इसलिए' आलम 'मेरे अंदर
कि
की
दुनिया में
नजारा
नज़ारा
और है कोई
</poem>
द्विजेन्द्र द्विज
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