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14:04, 28 दिसम्बर 2010 <poem>घाट मुर्दा है, गली मुर्दा है, घर मुर्दा है
मैं जहाँ रहता हूँ वो सारा शहर मुर्दा है
अब अमल है न किसी बात का है रद्दे अमल
ऐसा लगता है कि हर एक बशर मुर्दा है
छाँव ही देगा, न फल- फूल ही देगा यारो
अब तो इस बाग का हर एक शज़र मुर्दा है
ऐसे माहौल में तख्लीके ग़ज़ल, शेरो सुखन
कौन कहता है कि शायर का हुनर मुर्दा है
वक्त के साथ हर एक बात के मतलब बदले
अब दुआ हो या दवा , सबका असर मुर्दा है
जुम्बिशे ज़िस्म से जिन्दा न समझ लेना इन्हें
ज़िस्म जिन्दा है तो क्या रूह मगर मुर्दा है</poem>