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15:55, 29 दिसम्बर 2010 <poem>दीवारों को घर समझा था
मैं कम से कमतर समझा था
सच का मोल नहीं है, सच में
तू मुझसे से बेहतर समझा था
सिक्के के दो पहलु सुख-दुःख
दुनिया ने अन्तर समझा था
थका हुआ था रात बहुत मैं
धरती को बिस्तर समझा था
आखिर वो पत्थर ही निकला
मैं जिसको ईश्वर समझा था
प्रश्न ही था वह प्रश्न के बदले
मैं पागल उत्तर समझा था</poem>