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17:15, 29 दिसम्बर 2010 <poem>प्रश्न सारे आज उत्तर माँगते हैं
थक चुके हैं ये पथिक पर माँगते हैं
चंद बूँदों से न बहलेंगे ये प्यासे
आज तो सारा समंदर माँगते हैं
फिर बगावत पर उतर आये परिंदे
हर किसी सैयद से पर माँगते हैं
भीड़ शीशे के घरों के सामने हैं
और सारे हाथ पत्थर मांगते हैं
घोपने को पीठ में मेरी ही अक्सर
मुझसे मेरे दोस्त खंजर माँगते हैं
फूल से नाज़ुक थे जो अशआर अब तक
हमसे अंगारों के तेवर माँगते हैं </poem>