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15:22, 30 दिसम्बर 2010 <poem>झूठ, सच , नेकी , बदी, सबका सिला मालूम है
जिन्दगी मुझको तेरा हर फ़लसफ़ा मालूम है
तू मुझे कोई सजा दे या न दे तेरी ख़ुशी
मुझको लेकिन दोस्त अपनी हर ख़ता मालूम है
मंदिरो मस्जिद में उसको ढूँढता हूँ मैं मगर
कौन सी बस्ती में रहता है खुदा मालूम है
साँस लेना भी ज़हर पीने से कुछ कमतर नहीं
मुझको तेरे शहर की आबो- हवा मालूम है
सच तो ये है मैं अभी तक खुद से भी अनजान हूँ
कैसे कह दूँ फिर मुझे तेरा पता मालूम है
क्या बुरा कर लेगा कोई, क्यों मैं दुनिया से डरूँ
जबकि मुझको अपनी किस्मत का लिखा मालूम है
मैं अगर जिन्दा हूँ अब तक , मेरी किस्मत है 'अनिल'
वरना मुझको हर ज़हर का जायका मालूम है</poem>