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माअजूरी / साहिर लुधियानवी

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खलवत-ओ-जलवत में तुम मुझसे मिली हो बरहा

तुमने क्या देखा नहीं, मैं मुस्कुरा सकता नहीं


मैं की मायूसी मेरी फितरत में दाखिल हो चुकी

ज़ब्र भी खुद पर करूं तो गुनगुना सकता नहीं


मुझमे क्या देखा की तुम उल्फत का दम भरने लगी

मैं तो खुद अपने भी कोई काम आ सकता नहीं


रूह-अफज़ा है जुनूने-इश्क के नगमे मगर

अब मै इन गाये हुए गीतों को गा सकता नहीं


मैंने देखा है शिकस्ते-साजे-उल्फत का समां

अब किसी तहरीक पर बरबत उठा सकता नहीं


तुम मेरी होकर भी बेगाना ही पाओगी मुझे

मैं तुम्हारा होकर भी तुम में समा सकता नहीं


गाये हैं मैंने खुलूसे-दिल से भी उल्फत के गीत

अब रियाकारी से भी चाहूं तो गा सकता नहीं


किस तरह तुमको बना लूं मैं शरीके ज़िन्दगी

मैं तो अपनी ज़िन्दगी का भार उठा सकता नहीं


यास की तारीकियों में डूब जाने दो मुझे

अब मैं शम्मा-ए-आरजू की लौ बढ़ा सकता नहीं
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