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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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ख़ामोश रहेंगी पीपल पर, बैठी हुई ये चिड़ियाँ कब तक
और फूल बनेंगी गुलशन में, अरमानो की कलियाँ कब तक

तुम दिल पर अपने हाथ रखो, फिर बोलो क्या आसान है ये
कैसे मैं गुजारूँ दिन तुम बिन, सूनी रखूँ ये रतियाँ कब तक

ऐ चाँद सितारों तुम ही कहो, वो किस नगरी में रहते हैं
दरशन को उनके तरसेंगी, प्यासी मेरी अँखियाँ कब तक

तुमने तो कहा था आने को, और वादा कर के भूल गए
मैं सोच रही हूँ क्या होगा, छेड़ेंगी मुझे सखियाँ कब तक

कोयल तेरी बोली मीठी है, पर मन मेरा कब तक तरसेगा
मिसरी कानों में घोलेंगी, प्रियतम की मेरे बतियाँ कब तक

मिलने तो मैं उनसे जाऊँगी, तू इतना बता दे मुझको सखी
बरसात भला कब ठहरेगी, उतरेंगी भला नदियाँ कब तक

कहते हैं अदीब और शाइर ये गुज़रेगा इधर से कोई 'रक़ीब'
अब देखना है ये देखेंगे, सूनी हैं तेरी गलियाँ कब तक
</poem>
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