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<poem>इस बरस होली का त्यौहार मनाये कैसे
जर्द चेहरों पे चटक रंग लगाये कैसे

द्वेष का जहर लिए दिल में जो फिरते हैं सदा
ऐसे लोगों को गले अपने लगाये कैसे

जब की मजदूर के घर ठंडा पड़ा है चूल्हा
ऐसे माहौल में हम होली जलाएं कैसे

ऊँची दीवार खड़ी कर दी उन्होंने इतनी
इस तरफ आएँगी अब ठंडी हवाए कैसे

हम तो इन्सान को इन्सान बना भी देते
उसके अस्तित्व से पर पेट हटायें कैसे

नाव जीवन की किनारे खड़ी अकुलाती है
रेत की नदियों में पर इसको तिराएँ कैसे

अब ग़ज़ल में वो नज़ाकत नहीं, इक आग सी है
खुद को इस आग में जलने से बचाएं कैसे</poem>
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