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03:41, 2 जनवरी 2011 <poem>जगमग जगमग दीप जलाती आयी एक दिवाली और
अंधियारे को आंख दिखाती आयी एक दिवाली और
नैतिकता का राम भोग कर चौदह वर्षो का वनवास
शायद लौटे , आस बंधाती आयी एक दिवाली और
महंगाई की सुरसा मुँह को फाड़े हर इक गाम खड़ी
अपना कद कुछ और घटाती आयी एक दिवाली और
द्रुपद सुता फिर दाँव लगी है राजपाट की चौसर पर
शतरंजी चालें चलवाती आयी एक दिवाली और
ऊँचे ऊँचे महलों ने ही सभी उजाले बाँट लिए
नन्हीं कुटिया को तरसाती आयी एक दिवाली और
आशंकित है संग बड़ो के, मस्त जवानों के रंग में
बच्चों के संग हँसती गाती आयी एक दिवाली और
माता लक्ष्मी के स्वागत में नन्हें नन्हें दीप लिए
आँगन, देहरी, द्वार सजाती आयी एक दिवाली और</poem>