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राखी / नज़ीर अकबराबादी

625 bytes added, 17:03, 4 जनवरी 2011
<poem>
चली आती है अब तो हर कहीं बाज़ार की राखी ।
सुनहरी, सब्ज़, रेशम, ज़र्द और गुलनार<ref>अनार का फूल</ref> की राखी ।बनी है गो<ref>यद्यपि, अगरचे</ref> कि नादिर<ref>अद्भुत्त, श्रेष्ठ</ref> ख़ूब हर सरदार की राखी ।सलूनों में अजब रंगीं है उस दिलदार<ref>प्रेमपात्र</ref> की राखी । न पहुँचे एक गुल<ref>फूल</ref> को यार जिस गुलज़ार<ref>बाग़</ref> की राखी ।।1।।
अयाँ<ref>प्रकट, जाहिर</ref> है अब तो राखी भी, चमन भी, गुल भी, शबनम<ref>ओस</ref> भी ।
झमक जाता है मोती और झलक जाता है रेशम भी ।
तमाशा है अहा ! हा ! हा गनीमत है यह आलम भी ।
उठाना हाथ, प्यारे वाह वा टुक देख लें हम भी ।
तुम्हारी मोतियों की और ज़री<ref>सोने चाँदी के तार</ref> के तार की राखी ।।2।।
मची है हर तरफ़ क्या क्या सलूनों की बहार अब तो ।
हर एक गुलरू<ref>फूल जैसे सुंदर और सुकुमार मुख वाली नायिका</ref> फिरे है राखी बाँधे हाथ में ख़ुश हो ।हवस<ref>उत्कंठा, लालसा</ref> जो दिल में गुज़रे है कहूँ क्या आह में तुमको ।
यही आता है जी में बनके बाम्हन आज तो यारो ।
मैं अपने हाथ से प्यारे के बाँधूँ प्यार की राखी ।।3।।
हुई है ज़ेबो ज़ीनत<ref>शृंगार और सजावट</ref> और ख़ूबाँ<ref>सुंदर स्त्रियाँ, प्रियतमाएँ</ref> को तो राखी से ।
व लेकिन तुमसे अब जान और कुछ राखी के गुल फूले ।
दिवानी बुलबुलें हों देख गुल चुनने लगीं तिनके ।
तुम्हारे हाथ ने मेंहदी ने अंगश्तो<ref>उँगलियाँ</ref> ने नाख़ुन ने । गुलिस्ताँ<ref>बाग़</ref> की, चमन<ref>बाग़</ref> की, बाग़ की गुलज़ार<ref>हरी भरी शोभायुक्त, रौनकदार</ref> की राखी ।।4।।
अदा से हाथ उठने में गुले राखी जो हिलते हैं ।
</poem>
 
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