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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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ऐ काश मेरी भी बन जाए, जो बात है, बातों बातों में
इज़हार मुहब्बत का कर ले इक रोज़ वो आँखों आँखों में

ईशवर की करम फरमाई है, बस मन को वो मेरे भाई है
इक सुन्दर सुन्दर सी लड़की जो मुझको मिली थी मेलों में

आई हैं बहारें घर मेरे, रंगीं हैं नज़ारे घर मेरे
मैं फूल चमन में खिलते हुए देखा करता हूँ ख़्वाबों में

हर एक के मन भाता है इस फूल की क़िस्मत तो देखो
चढ़ता है किसी के क़दमों पर, सजता है किसी के बालों में

सोचा तो बहुत हमने लेकिन ये बात समझ में आई नहीं
क्यों प्रेम के दुश्मन युग युग से रहते हैं हमारी घातों में

कहती है वो मुझको प्रेम कवी मैं प्यार में जिसके पागल हूँ
चरचा है 'रक़ीब' उस देवी का मेरे लिखे सारे गीतों में
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