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16:35, 5 जनवरी 2011 {{KKGlobal}}
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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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<poem>
जो कहते थे के देंगे जान भी हम प्यार की ख़ातिर
"न आए वो अना में आख़िरी दीदार की ख़ातिर"
बहे अब दिल से खूँ क्यूं कर जलाया उसको ख़ुद तू ने
न इक क़तरा बचा खूँ का तेरी तलवार की ख़ातिर
लगाया दिल तो क्या पाया उसे भी तो नहीं पाया
न करना था, किया वो भी किसी दिलदार की ख़ातिर
यहाँ इक घर बनाया था मगर अब ऐसा लगता है
के अब जाएगी जाँ मेरी दरो-दीवार की ख़ातिर
मेरे लीडर 'रक़ीब'-ए-मन बता क्या काम है तेरा
अगर कुछ है, "तेरी ख़ातिर, तेरी सरकार की ख़ातिर"
</poem>