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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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जब भी तू मेहरबान होता है
दिल मेरा बदगुमान होता है

प्यार है देन एक क़ुदरत की
पाए, जो भागवान होता है

लोग उसको सलाम करते हैं
जिसका ऊँचा मकान होता है

अपना बिस्तर ज़मीन, रातों को
आसमाँ सायबान होता है

जीत लेता है दुश्मनों के दिल
जो कोई ख़ुशबयान होता है

रोज ख़तरों से खेलने वाला
साहिबे आन-बान होता है

हूरे जन्नत है ज़िन्दगी मेरी
हुस्न क़ुदरत का दान होता है

पुख्तगी हो अगर इरादों में
आदमी कामरान होता है

हो जो शाइर हक़ीक़तन ऐ 'रक़ीब'
वो ही अहले ज़बान होता है
</poem>
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