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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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जिगर से गर जिगर ख़ुद का, मिला देते तो अच्छा था
हुई थी गर ख़ता कोई, भुला देते तो अच्छा था

लिखा है जो मुक़द्दर में, यक़ीनन वो अता होगा
मगर औलाद से गुलशन, सजा देते तो अच्छा था

फ़रिश्ते ने कहा क्या दूँ, था ग़ुरबत में कहा उसने
फटी है ज़ेब कुर्ते की, सिला देते तो अच्छा था

करो मत फिक्र हम तो हैं, ये कहते तो बहुत लेकिन
कभी राहों में पलकें भी, बिछा देते तो अच्छा था

कभी पी थी निगाहों से, न उतरा वो ख़ुमार अब तक
वही फिर मस्त आँखों से, पिला देते तो अच्छा था

दिए तो घर कई तू ने, शिकायत है मगर या रब
किसी घर में कोई दीपक, जला देते तो अच्छा था

हबीब आए हैं महफ़िल में, नहीं कोई 'रक़ीब' आया
अगर ये फ़ासले दिल के मिटा देते तो अच्छा था
</poem>
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